‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

कुण्डलियां लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कुण्डलियां लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

अँकुश व्‍यपारी पर नहीं

 जनता मेरे देश का, दिखे विवश लाचार ।

अँकुश व्‍यपारी पर नहीं, सौ का लिए हजार ।।

सौ का लिए हजार, सभी लघु दीर्घ व्‍यपारी ।

लाभ नीति हो एक, देश में अब सरकारी ।।

कितना लागत मूल्‍य,  बिक्री का कितना तेरे ।

ध्‍यान रखें सरकार,  विवश हैं जनता मेरे ।। 


नारी का बहू रूप

 नारी का बहू रूप


नारी नाना रूप में, बहू रूप में सार । मां तो बस संतान की, पत्नी का पति प्यार । पत्नी का पति प्यार, मात्र पति को घर जाने । बेटी पन का भाव, मायका बस को माने ।। सास-ससुर परिवार, बहू करती रखवारी । बहू मूल आधार, समझ लो हर नर नारी ।।


नर के सारे काम में, दक्ष हुई अब नार ।
नारी के हर काम को, करने नर तैयार ।।
करने नर तैयार, काम में अंतर कैसे ।
गढ़ना घर परिवार, पुरुष ना नारी जैसे ।
सुन लो कहे 'रमेश', सभी नारी घर के ।
महिला से परिवार, नहीं हो सकता नर के ।।

कोराेना का रोना

 कोरोना का रोना
(कुण्‍डलियॉं)



कोरोना का है कहर , कंपित कुंठित लोग ।

सामाजिकता दांव पर, ऐसे व्यापे रोग ।

ऐसे व्यापे रोग, लोग कैदी निज घर में ।

मन में पले तनाव, आज हर नारी नर में ।।

सुन लो कहे रमेश, चार दिन का यह रोना ।

धरो धीर विश्वास, नष्ट होगा कोरोना ।


तन से दूरी राखिये, मन से दूरी नाहिं ।

मन से दूरी होय जब, मन से प्रीत नसाहिं ।

मन से प्रीत नसाहिं,  अगर कुछ ना बाेलो गे ।

करे न तुम से बात, तुमहिं सोचो क्‍या तौलो गे ।

सुन लो कहे 'रमेश', चाहिए साथी मन से ।

किया करें जी फोन, भले दूरी हो तन से ।।


घृणा रोग से कीजिये, रोगी से तो नाहिं ।

रोगी को संबल मिलत, रोग देह से जाहिं ।

रोग देह से जाहिं, हौसला जरा बढ़ायें ।

देकर हिम्‍मत धैर्य, आत्‍म विश्‍वास जगायें ।।

सुन लो कहे रमेश, जोड़ भावना लोग से ।

दें रोगी को साथ, घृण हो भले रोग से ।।

-रमेश चौहान

सोच रखिये चिर-नूतन (नववर्ष की शुभकामना)

सोच रखिये चिर-नूतन
(कुण्‍डलियॉं)

नववर्ष की शुभकामना

 नित नव नूतन नवकिरण, दिनकर का उपहार ।

भीनी-भीनी भोर से, जाग उठा संसार ।।

जाग उठा संसार, खुशी नूतन मन भरने ।

नयन नयापन नाप, करे उद्यम दुख हरने ।।

सुन लो कहे ‘रमेश’, सोच रखिये चिर-नूतन ।

वही धरा नभ सूर्य, नहीं कुछ नित नव नूतन ।।


दीप पर्व की शुभकामनाएं

धनतेरस (कुण्‍डलियां छंद)

आयुष प्रभु धनवंतरी, हमें दीजिए स्वास्थ्य  ।

आज जन्मदिन आपका,   दिवस परम परमार्थ ।।

दिवस परम परमार्थ,  पर्व यह धनतेरस का ।

असली धन स्वास्थ्य, दीजिए वर सेहत का ।।

धन से बड़ा "रमेश", स्वास्थ्य पावन पीयुष ।

आयुर्वेद का पर्व, आज बांटे हैं आयुष ।।



दीप (रूपमाला छंद)

दीप की शुभ ज्‍योति पावन,  पाप तम को  मेट ।

अंधियारा को हरे है,  ज्‍यों करे आखेट ।

ज्ञान लौ से दीप्‍त होकर,  ही करे आलोक ।

आत्‍म आत्‍मा प्राण प्राणी,  एक सम भूलोक ।।


-रमेश चौहान

कुण्डलियाँ यूँ बोलती है

-कुण्डलियाँ यूँ बोलती है-

1.
बेटा-बेटी एक सम, सौ प्रतिशत है सत्य ।
बेटा अब कमतर लगे, यह भी है कटु तथ्य ।।
यह भी है कटु तथ्य, उच्च शिक्षा वह छोड़े ।
अपने आप हताश, नशा से नाता जोड़े ।
सुन लो कहे ‘रमेश’, हुआ वह अब सप्रेटा ।
बेटी के समकक्ष, लगे कमतर अब बेटा ।।
(सप्रेटा-मक्खन रहित दूध)

2.
दादा-दादी माँ-पिता, भैया-भाभी संग ।
चाचा-चाची और हैं, ज्यों फूलों का रंग ।।
ज्यों फूलों का रंग, बाग को बाग बनाते ।
सब नातों का साथ, एक परिवार कहाते ।।
सुन लो कहे ‘रमेश’, करें खुद से खुद वादा ।
एक रखें परिवार, रहे जिसमें जी दादा ।।

3.
अंधे-बहरे है नहीं, फिर भी रहते मौन ।
नशा नाश का मूल है, जाने यहाँ न कौन ।।
जाने यहाँ न कौन, जहर यह धीमा होता ।
मृत्यु पूर्व ही खाय, पीर सागर वह गोता ।।
सुनलो कहे ‘रमेश’, मूल हैं इसके गहरे ।
तोड़ों इसके जाल, रहो मत अंधे-बहरे ।।

4.
दुनिया सचमुच गोल है, जहाँ समय बलवान ।
कल दहेज के नाम पर, बेटी देती जान ।
बेटी देती जान, लोभियों के फंदों पर ।
बेटे जिंदा लाश, आज झूठे केसों पर ।।
देख रहा ‘चौहान’, आज कानूनी मुनिया ।
कैसे देती मात, गोल है सचमुच दुनिया ।।

5.
कहती शिक्षा स्कूल से, सुन लो मेरी बात ।
भेदभाव को छोड़कर, बांट ज्ञान सौगात ।।
बांट ज्ञान सौगात, लोग होवें संस्कारी ।
मैं तो नहीं बिकाऊ, बनो मत तुम व्यापारी ।।
तेरे इस करतूत, पीर मैं सहती रहती ।
मुझे न कर बदनाम, स्कूल से शिक्षा कहती ।।

6.
पैसा सबको चाहिये, जीवित रखने प्राण ।
काम हमें तो चाहिये, नहीं चाहिये दान ।।
नहीं चाहिये दान, निरिह ना हमें बनायें ।
हाथों में है जान, काम कुछ हमें बतायें ।।
पढ़ा लिखा ‘चौहान’, निठल्ला घूमे कैसे ।
काम बिना ना मान, चाहिये सबको पैसे ।।

7.
बेजाकब्जा गाँव में, गोचर बचा न शेष ।
ट्रेक्टर निगले बैल को, गौधन अब लवलेश ।।
गौधन अब लवलेश, पराली जले न कैसे ।
पर्यावरण वितान, रहे चाहे वह जैसे ।।
हैं बेखबर ‘रमेश’, करे वह केवल कब्जा ।
हर कारण के मूल, एक है बेजाकब्जा ।।

8.
मॉर्डन होने का चलन, तोड़ रहा परिवार ।
शिक्षित अरू धनवान ही, इसके सपनेकार ।।
इसके सपनेकार, बाप-माँ को हैं छोड़े ।
वृद्धाश्रम में छोड़, कर्तव्यों से मुख मोड़े ।
सुन लो कहे ‘रमेश’, साक्ष्य हैं इसके वॉर्डन ।
मांगे जो अधिकार, वही बनते हैं मॉर्डन ।।


-रमेशकुमार सिंह चौहान

अपनी आँखों से दिखे,

अपनी आँखों से दिखे, दुनिया भर का चित्र ।
निज मुख दिखता है नहीं, तुम्ही कहो हे! मित्र ।
तुम्हीं कहो हे! मित्र, चेहरा मेरा कैसा ।
दुनिया से है भिन्न, या कि वैसा का वैसा ।।
बंधा पड़ा "रमेश", स्याह मन के काँखों से।
कैसे अंतस देह, पढ़े अपनी आँखों से ।।
-रमेश चौहन

आरक्षण सौ प्रतिशत करें

छोड़ बहत्तर सौ करें, आरक्षण है नेक ।
संविधान में है नहीं, मानव-मानव एक  ।।
मानव-मानव एक, कभी होने मत देना ।
बना रहे कुछ भेद, स्वर्ण से बदला लेना ।।
घुट-घुट मरे "रमेश",  होय तब हाल बदत्तर ।
मात्र स्वर्ण को छोड़, करें सौ छोड़ बहत्तर ।।

वेद

श्रीमुख से है जो निसृत,  कहलाता श्रुति वेद ।
मानव-तन में भेद क्या, नहीं जीव में भेद ।।
नहीं जीव में भेद,  सभी उसके उपजाये ।
भिन्न-भिन्न रहवास, भिन्न भोजन सिरजाये ।।
सबका तारणहार, मुक्त करते  हर दुख से ।
उसकी कृति है वेद, निसृत उनके श्रीमुख से ।।
-रमेश चौहान

नारी पच्चीसा

नारी! देवी तुल्य हो, सर्जक पालक काल ।
ब्रह्माणी लक्ष्मी उमा, देवों का भी भाल ।।
देवों का भी भाल, सनातन से है माना ।
विविध रूप में आज, शक्ति  हमने पहचाना ।।
सैन्य, प्रशासन, खेल, सभी क्षेत्रों में भारी ।
राजनीति में दक्ष, उद्यमी भी है नारी ।।1।।

नारी का पुरुषार्थ तो, नर का है अभिमान ।
नारी करती आज है, कारज पुरुष समान ।।
कारज पुरुष समान, अकेली वह कर लेती ।
पौरूष बुद्धि विवेक, सफलता सब में  देती ।।
अनुभव करे "रमेश", नहीं कोई बेचारी ।
दिखती है हर क्षेत्र, पुरुष से आगे नारी ।।2।।

नारी जीवन दायिनी, माँ ममता का रूप ।
इसी रूप में पूजते, सकल जगत अरु भूप ।
सकल जगत अरु भूप, सभी कारज कर सकते ।
माँ ममता मातृत्व, नहीं कोई भर सकते ।।
सुन लो कहे "रमेश", जगत माँ पर बलिहारी ।
अमर होत नारीत्व, कहाती माँ जब नारी ।।3।।

नारी से परिवार है, नारी से संसार ।
नारी भार्या रूप में,  रचती है परिवार ।।
रचती है परिवार, चहेती पति का बनकर ।
ससुर ननद अरु सास, सभी नातों से छनकर ।।
तप करके तो आग, बने कुंदन गरहारी ।
माँ बनकर संसार, वंदिता है  वह नारी ।।4।।

नारी तू बलदायनी, सकल शक्ति का रूप ।
तू चाहे तो रंक कर, तू चाहे तो भूप ।।
तू चाहे तो भूप, प्रेम सावन बरसा के ।
चाहे कर दें रंक, रूप छल में झुलसा के  ।।
चाहे गढ़ परिवार, सास की बहू दुलारी ।
चाहे सदन उजाड़, आज की शिक्षित नारी ।।5।।

नारी करती काज सब, जो पुरुषों का काम ।
अपने बुद्धि विवेक से, करती है वह नाम ।।
करती है वह नाम, विश्व में भी बढ़-चढ़कर।
पर कुछ नारी आज, मध्य में है बस  फँसकर ।।
भूल काज नारीत्व, मात्र हैं इच्छाचारी ।
तोड़ रही परिवार, अर्ध शिक्षित कुछ नारी ।।6।।

नारी शिक्षा चाहिए, हर शिक्षा के साथ ।
नारी ही परिवार को, करती सदा सनाथ ।।
करती सदा सनाथ, पतोहू घर की बनकर ।
गढ़ती है परिवार, प्रेम मधुरस में सनकर ।।
पति का संबल पत्नि, बुरे क्षण में भी प्यारी ।
एक लक्ष्य परिवार, मानती है सद नारी ।।7।।

नारी यदि नारी नहीं, सब क्षमता है व्यर्थ ।
नारी में नारीत्व का, हो पहले सामर्थ्य ।।
हो पहले सामर्थ्य, सास से मिलकर रहने ।
एक रहे परिवार, हेतु इसके दुख सहने ।।
नर भी तो कर लेत, यहाँ  सब दुनियादारी ।
किन्तु  नार के काज, मात्र कर सकती नारी ।।8।।

नारी ही तो है बहू, नारी ही तो सास ।
पांचाली सम हो बहू, कुंंती जैैैैसे सास ।।
कुंती जैसे सास, साथ दुख-सुख में रहती ।
साधे निज परिवार, साथ पति के सब सहती ।।
सहज बने हर सास, बहू की भी हो प्यारी  ।
सच्चा यह सामर्थ्य, बात समझे हर नारी ।।9।।

नारी आत्म निर्भर हो, होवे सुदृढ़ समाज ।
पर हो निज नारीत्व पर, हर नारी को नाज ।।
हर नारी को नाज, होय नारी होने पर।
ऊँचा समझे भाल, प्रेम ममता बोने पर ।।
रखे मान सम्मान, बने अनुशीलन कारी ।
घर बाहर का काम, आज करके हर नारी ।।10।।

नारी अब क्यों बन रही,  केवल पुरुष समान ।
नारी के रूढ़ काम को, करते पुरुष सुजान ।।
करते पुरुष सुजान,  पाकशाला में चौका ।
फिर भी  होय न पार, जगत में जीवन नौका ।।
नारी खेवनहार, पुरुष का जग मझधारी ।
समझें आज महत्व, सभी वैचारिक नारी ।।11।।

नारी है माँ रूप में,  जीवन के आरंभ ।
माँ की ममता पाल्य है, हर जीवन का दंभ ।।
हर जीवन का दंभ, प्रीत बहना की होती ।
पत्नि पतोहू प्यार,  सृष्टि जग जीवन बोती ।
सहिष्णुता का सूत्र,  मंत्र केवल उपकारी
जीवन का आधार, जगत में केवल नारी ।।12।।

नारी का नारीत्व ही, माँ ममता मातृत्व ।
नारी का नारीत्व बिन,  शेष कहाँ अस्तित्व ।
शेष कहाँ अस्तित्व, पुरुष ही हो यदि नारी ।
नारी से परिवार,  बात समझो मतवारी ।।
नारी नर से श्रेष्ठ, जगत में जो संस्कारी ।
गढ़े सुदृढ़ परिवार, आत्म बल से हर नारी ।।13।।

नारी का संतान को,  जनना नहीं पर्याप्त ।
नारी को परिवार में, होना होगा व्याप्त ।
होना होगा व्याप्त, वायु परिमण्डल जैसे ।
तन में जैसे रक्त, प्रवाहित हो वह वैसे ।।
अपने निज परिवार, निभाकर नातेदारी ।
सफल होय ससुराल, अहम तज कर हर नारी ।।14।।

नारी नर हर काम को,  करते एक समान ।
चाहे घर का काम हो, चाहे बाहर स्थान  ।।
चाहे बाहर स्थान, युगल जोड़ी कर सकते ।
किंतु पुरुष परिवार, कभी भी ना गढ़ सकते ।।
नारी ही परिवार, पुरुष इस पर बलिहारी ।
नारी नर का द्वंद, चलें तज कर नर नारी ।।15 ।।

नारी निज महत्व को, तनिक न्यून ना मान ।
नारी, नर सहगामनी, ज्यों काया में प्राण ।।
ज्यों काया में प्राण, ज्योति से ही ज्यों नैना।
सृष्टि मूल परिवार, आप करतीं उसको पैना ।।
विनती करे ‘रमेश’, बनें जीवन सहचारी ।
जीवन को गतिमान, मात्र कर सकती नारी ।।16।।

नारी का है मायका, नारी का ससुराल ।
नारी दोनों वंश की, रखती हरदम ख्याल ।।
रखती हरदम ख्याल, पिता पति की बन पगड़ी ।
चाहे हो दुख क्लेश, बने वह संबल तगड़ी ।।
छोड़-छाड़ परिवार, बने जो बस व्यभिचारी ।
छोड़ रखे जो लाज, भला वह कैसी नारी ।।17।।

नारी का ससुराल में, अजर अमर सम्मान ।
कुछ-कुछ नारी आज के, दिखा रही है शान ।।
दिखा रही है शान, मायका जाये बैठे ।
मांग गुजारा खर्च, सास पति से ही ऐंठे ।।
पूछे प्रश्न "रमेश", मात्र पैसा है भारी  ।
पाहन दंड समान,  प्रेम बिनु नर अरु नारी ।।18।।

नारी ऐसी एक वह, जब आई ससुराल ।
कछुक दिवस के बाद ही, कर बैठी हड़ताल ।
कर बैठी हड़ताल, अलग घर में है रहना ।
सास ससुर का झेल, तनिक ना मुझको सहना ।।
क्या करता वह लाल, चले उसके अनुहारी ।
मगर दिवस कुछु बाद, मायका बैठी नारी ।।19।।

नारी पहुंची कचहरी, अपनी रपट लिखाय ।
तलब किए तब कोर्ट ने, पति को लियो बुलाय ।।
पति को लियो बुलाय, कोर्ट ने दी समझाइश ।
रह लो दोनों साथ, पूछ कर उनकी ख्वाहिश।।
फिर से दोनों साथ , रहे कुछ ही दिन चारी ।
फिर से एक बार, शिकायत की वह नारी ।।20।।

नारी की सुन शिकायत, छाती पर रख हाथ ।
चले पत्नी के मायका, रहने उनके साथ ।।
रहने उनके साथ, लगे वह वहीं कमाने ।
फिर भी उनकी पत्नी, रहे ना साथ सुहाने ।।
नोकझोंक के फेर, पुरुष कुछ गलत विचारी ।
तज दूँ मैं निज प्राण, मुक्त होगी यह नारी ।।21।।

नारी के इस करतूत से, लज्जित थी नर नार ।
देव कृपा से पुरुष  वह, जीवित है संसार ।।
जीवित है संसार, मात्र जीवित ही रहने ।
उनके सुत है एक, आजतो वियोग सहने ।।
सुन लो कहे "रमेश", पुरुष  वह सदव्यवहारी ।
पर कुछ समझ न आय, खपा क्यों उनकी नारी ।।22।।

नारी हित कानून कुछ, बना रखे सरकार ।
पर कुछ नारी कर रहीं, इस पर अत्याचार ।।
इस पर अत्याचार, केस झूठे ही करके ।
बात बात पर बात, लाख झूठे ही भरके ।।
माने खुद को श्रेष्ठ, आज कुछ इच्छाचारी ।
नारी को बदनाम, आज करती कुछ नारी ।।23।।

नारी ही बेटी-बहू, नारी ही माँ-सास ।
इनसे ही भरते तमस, इनसे भरे उजास ।
इनसे भरे उजास, शांति सुख समृद्धि घर में ।
कुछ नारी का दम्भ, उजाड़े घर पल भर में ।।
हे बेटी की मात !, मानिये जिम्मेदारी ।
अरी बहू की सास, बहू तुम सम है नारी ।।24।।

नारी के इस द्वन्द में, पुरूष मात्र लाचार ।
दोषी नर यदि सैकड़ा, दोषी नार हजार ।।
दोषी नार हजार, दोष अपना ना माने ।
टूट रहे परविर, श्रेष्ठ अपने को जाने ।।
नारी यहाँ करोड़, आज भी मंगलकारी ।
घर-घर का आधार, आदि से अबतक नारी ।।25।।

बढ़ो तुम देखा-देखी

देखा-देखी से जगत, आगे बढ़ते लोग ।
अगल-बगल को देखकर, बढ़े जलन का रोग ।
बढ़े जलन का रोग, करे मन ऐसा करना ।
करके वैसा काम, सफलता का पथ गढ़ना ।
सुन लो कहे रमेश, छोड़ कर अपनी  सेखी ।
करलो खुद  कुछ काम, बढ़ो तुम देखा-देखी ।।

नेता देते चोट

देश  विरोधी बात  पर,  करे कौन है  वोट ।
जिसे रिझाने देश को, नेता  देते  चोट  ।।
नेता  देते  चोट,  शत्रु  को  बाँहें डाले ।
व्यर्थ-व्यर्थ  के  प्रश्न, देश में खूब  उझाले ।।
रोये देख "रमेश ",  लोग  कुछ हैं  अवरोधी ।
देना  उसको चोट,  बचे ना देश विरोधी  ।।

- रमेश  चौहान

सबसे गंदा खेल है, राजनीति का खेल

ऐसा कैसे हो रहा, जो मन रहे उदास ।
धर्म सनातन सत्य है, नहीं अंधविश्वास ।।
नहीं अंधविश्वास, राम का जग में होना ।
मुगल आंग्ल का खेल, किये जो जादू-टोना ।।
खड़ा किये जो प्रश्न, धर्म आस्था है कैसा ।
ज्यों काया में प्राण, धर्म आस्था है ऐसा ।।

सबसे गंदा खेल है, राजनीति का खेल ।
करने देते हैं नहीं, इक-दूजे को मेल ।।
इक-दूजे को मेल, नहीं क्यों करने देते ।
करों बांट कर राज, यही शिक्षा जो लेते ।।
विश्व एक परिवार, जिसे लगता है फंदा ।
राजनीति का खेल, खेल है सबसे गंदा ।।

-रमेशकुमार सिंह चौहान

सोच रहा हूँ क्या लिखूँ

सोच रहा हूँ क्या लिखूँ, लिये कलम मैं हाथ ।
कथ्य कथानक शिल्प अरू, नहीं विषय का साथ ।।
नहीं विषय का साथ, भावहिन मुझको लगते ।
उमड़-घुमड़ कर भाव, मेघ जलहिन सा ठगते ।।
दशा देश का देख, कलम को नोच रहा हूँ ।
कहाँ मढ़ू मैं दोष, कलम ले सोच रहा हूँ ।।

आगे  पढ़े....

कहते पिता रमेश

दुनियाभर की हर खुशी, तुझे मिले लोकेश ।
सुत ! सपनों का आस हो, कहते पिता रमेश ।।
कहते पिता रमेश, आदमी पहले बनना ।
धैर्य शौर्य रख साथ, संकटों पर तुम तनना ।।
देश और परिवार, प्रेम पावन अंतस भर ।
करके काम विशेष, नाम करना दुनियाभर ।।

छोड़ दक्षता आज, चाहिये शिक्षा हमको ??

शिक्षा हमको चाहिये, इसमें ना मतभेद ।
शिक्षा के उद्देश्य से, मुझको होता खेद ।
मुझको होता खेद, देख कर डिग्रीधारी ।
कागज में उत्तीर्ण, ,दक्षता पीड़ाकारी ।।
सुनलों कहे "रमेश", नौकरी चाही सबको ।
छोड़ दक्षता आज, चाहिये शिक्षा हमको ।।

टाॅपर बच्चे

टाॅपर बच्चे स्कूल के, नौकर हैं अधिकांश ।
पहले पुस्तक दास थे, अब मालिक के दास।।
अब मालिक के दास, शान शौकत दिखलाता ।
खुद का क्या पहचान,  रौब अपना बतलाता ।।
मालिक बना रमेश,   लिये शिक्षा जो सच्चे ।
सफल दिखे अधिकांश, नहीं है टाॅपर बच्चे ।।

-रमेश चौहान

माँ

माँ, माँ ही रहती सदा, पूत रहे ना पूत ।
नन्हे बालक जब बढ़े, माँ को समझे छूत ।।
माँ को समझे छूत, जवानी ज्यों-ज्यों आये ।
प्रेम-प्यार के नाम, प्यार माँ का बिसराये ।।
माने बात ‘रमेश‘, पत्नि जो जो अब कहती ।
बचपन जैसे कहाँ, आज माँ, माँ ही रहती ।।

ऐसी शिक्षा नीति

हमको तो अब चाहिये, ऐसी शिक्षा नीति ।
राष्ट्र प्रेम संस्कार का, जो समझे हर रीति ।।
जो समझे हर रीति, आत्म बल कैसे देते ।
कैसे शिक्षित लोग, सफल जीवन कर लेते ।
शिक्षा का आधार, हरे जीवन के गम को ।
कागज लिखे प्रमाण, चाहिये ना अब हमको ।।

मन में एक सवाल है

मन में एक सवाल है, उत्तर की दरकार ।
आखिर कब से देश में, पनपा भ्रष्टाचार ।।
पनपा भ्रष्टाचार, किये नेता अधिकारी ।
एक अँगूठा छाप, दिखे क्या भ्रष्टाचारी ।।
शिक्षित लोग "रमेश",  इसे फैलाये जन में ।
कैसी शिक्षा नीति, सोच कर देखें मन में ।।

Blog Archive

Popular Posts

Categories