‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

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जनता जनार्दन !

जनता जनार्दन !

वाह करते

वाह करते है लोग

नेताओं पर

जब कटाक्ष होवे

व्यवस्थाओं की

कलाई खोली जाए

वही जनता 

बंद कर लेते हैं

आँख, कान व मुॅंह

अपनी गलती में

क्या ऐ जनता

व्यवस्था का अंग है?

लोकतंत्र में

नेताओं का जनक?

खुद सुधरेंगे

व्यवस्था सुधरेगी

खुद से प्रश्न

पूछिए भला आप

भ्रष्टाचार लौ

धधकाया नहीं है

आहुति डाल

नियम खूंटी टांग

काम नहीं किए हो

सेंध लगाए

सरकारी योजना

नहीं डकारे

सकरी गली

किसके कारण हैं

नदी-नालों का

डगर कौन रोके

कुॅंआ-बावली

घासभूमि तालब

कहां लुप्त है

जंगल और खेत

किसके घर

लाख उपाय ढूँढ़े

टैक्स बचाने

कमर कस कर

तैयार कौन?

व्यवस्था को हराने

अकेले नेता?

केवल कर्मचारी??

जनता जनार्दन !


सभ्यसमाज

सभ्यसमाज
एक कुशल माली
बेटी की पौध
रोपते जतन से
पल्लवित होकर
नन्ही सी पौध
अटखेलियां करे
गुनगुनाती हुई
पुष्पित होती
महके चारो ओर
करे जतन
तोड़े ना कोई चोर
जग बगिया
बेटी जिसकी शोभा
गढ़े गौरव गाथा ।

ममता का आंचल

तारें आकश
दीनकर प्रकाश
धरती रज
समुद्र जल निधि
ईश्वर दया
माप सका है कौन
जगत मौन
ममता का आंचल
गोद में शिशु
रक्त दान करती
वात्सल्य स्नेह वह

नेताओं के चम्मच


.कौन करे है ?
देश में भ्रष्टाचार,
हमारे नेता,
नेताओं के चम्मच
आम जनता
शासक अधिकारी
सभी कहते
हाय तौबा धिक्कार
थूक रहे हैं
एक दूसरे पर
ये जानते ना कोई
नही नही रे
मानते नही कोई
तुम ही तो हो
मै भी उनके साथ
बेकार की है बात ।


प्राण सम सजनी

.चारू चरण
चारण बनकर
श्रृंगार रस
छेड़ती पद चाप
नुुपूर बोल
वह लाजवंती है
संदेश देती
पैर की लाली
पथ चिन्ह गढ़ती
उन्मुक्त ध्वनि
कमरबंध बोले
लचके होले
होले सुघ्घड़ चाल
रति लजावे
चुड़ी कंगन हाथ,
हथेली लाली
मेहंदी मुखरित
स्वर्ण माणिक
ग्रीवा करे चुम्बन
धड़की छाती
झुमती बाला कान
उभरी लट
मांगमोती ललाट
भौहे मध्य टिकली
झपकती पलके
नथुली नाक
हंसी उभरे गाल
ओष्ठ गुलाबी
चंचल चितवन
गोरा बदन
श्वेत निर्मल मन
मेरे अंतस
छेड़ती है रागनी
प्राण सम सजनी ।।

जीवन समर्पण

रोपा है पौध
रक्त सिंचित कर
निर्लिप्त भाव
जीवन की उर्वरा
अर्पण कर
लाल ओ मेरे लाल
जीवन पथ
सुघ्घड़ संवारते
चुनते कांटे
हाथ आ गई झुर्री
लाठी बन तू
हाथ कांप रहा है
अंतःकरण,
प्रस्पंदित आकांक्षा,
अमूर्त पड़ा
मूर्त करना अब,
सारे सपने,
अनगढ़े लालसा
प्रतिबम्ब है
तू तन मन मेरा
जीवन समर्पण ।

कौन श्रेष्ठ है ?

.कौन है सुखी ?
इस जगत बीच
कौन श्रेष्ठ है ?
करे विचार
किसे पल्वित करे
सापेक्षवाद
परिणाम साधक
वह सुखी हैं
संतोष के सापेक्ष
वह दुखी है
आकांक्षा के सापेक्ष
अभाव पर
उसका महत्व है
भूखा इंसान
भोजन ढूंढता है
पेट भरा है
वह स्वाद ढूंढता
कैद में पक्षी
मन से उड़ता है
कैसा आश्चर्य
ऐसे है मानव भी
स्वतंत्र तन
मन परतंत्र है
कहते सभी
बंधनों से स्वतंत्र
हम आजाद है रे ।

मानवता कहां है ?

2.घने जंगल
वह भटक गया
साथी न कोई
आगे बढ़ता रहा
ढ़ूंढ़ते पथ
छटपटाता रहा
सूझा न राह
वह लगाया टेर
देव हे देव
सहाय करो मेरी
दिव्य प्रकाष
प्रकाशित जंगल
प्रकटा देव
किया वह वंदन
मानव है तू ?
देव करे सवाल
उत्तर तो दो
मानवता कहां है ?
महानतम
मैने बनाया तुझे
सृष्टि रक्षक
मत बन भक्षक
प्राणी जगत
सभी रचना मेरी
सिरमौर तू
मुखिया मुख जैसा
पोशण कर सदा ।

मैंने गढ़ा है (चोका)

मैं प्रकृति हूॅं,
अपने अनुकूल,
मैंने गढ़ा है,
एक वातावरण
एक सिद्धांत
साहचर्य नियम 
शाश्वत सत्य
जल,थल, आकाश
सहयोगी हैं
एक एक घटक
एक दूजे के
सहज अनुकूल ।
मैंने गढ़ा है
जग का सृष्टि चक्र
जीव निर्जिव
मृत्यु, जीवन चक्र
धरा निराली
जीवन अनुकूल
घने जंगल
ऊंचे ऊंचे पर्वत
गहरी खाई
अथाह रत्नगर्भा
महासागर
अविरल नदियां
न जाने क्या क्या
सभी घटक
परस्पर पूरक ।
मैंने गढ़ा है
भांति भांति के जंतु
कीट पतंगे
पक्षी रंग बिरंगे
असंख्य पशु 
मोटे और पतले
छोटे व बड़े
वृक्षों की हरियाली
सृष्टि निराली
परस्पर निर्भर ।
मैनें गढ़ा है
इन सबसे भिन्न
एक मनुष्य
प्रखर बुद्धि वेत्ता
अपना मित्र
अपना संरक्षक
सृष्टि हितैषी ।
पर यह क्या
मित्र शत्रु हो गये
स्वार्थ में डूब
अनुशासन तोड़
हर घटक
विघटित करते
प्रतिकूल हो 
मेरी श्रेष्ठ रचना 
मैनें इसे गढ़ा है ।

अविश्वास

//चोका//
घरेलू हिंसा
नीव खोद रहा है
परिवार का
अस्तित्व खतरे में
अहम बोले
वहम पाले रखे
सहनशक्ति
खो गया कहीं पर
शिक्षा के आए
जागरूकता आए
प्यार विश्वास
सहमा डरा हुआ
कानून देख
एक पक्षीय लागे
पहचान खो
ओ पति पत्नी
एक दूजे को यहाॅं
खूब आंख दिखाये ।
-रमेश चौहान

जीवन (चोका)

1.
ढलती शाम
दिन का अवसान
देती विराम
भागम भाग भरी
दिनचर्या को
आमंत्रण दे रही
चिरशांति को
निःशब्द अव्यक्त
बाहें फैलाय
आंचल में ढक्कने
निंद में लोग
होकर मदहोश
देखे सपने
दिन के घटनाएं
चलचित्र सा
पल पल बदले
रोते हॅसते
कुछ भले व बुरे
वांछित अवांछित
आधे अधूरे
नयनों के सपने
हुई सुबह
फिर भागम भाग
अंधड़ दौड़
जीवन का अस्तित्व
आखीर क्या है
मृत्यु के शैय्या पर
सोच रहा मानव
गुजर गया
जीवन एक दिन
आ गई शाम
करना है आराम
शरीर छोड़ कर ।

2.
आत्मा अमर
शरीर छोड़कर
घट अंदर
तड़पती रहती
ऊहा पोह मे
इच्छा शक्ति के तले
असीम आस
क्या करे क्या ना करे
नन्ही सी आत्मा
भटकाता रहता
मन बावला
प्रपंच फंसकर
जग ढूंढता
सुख चैन का निंद
जगजाहिर
मन आत्मा की बैर
घुन सा पीसे
पंच तत्व की काया
जग की यह माया ।

जग की यह माया

आत्मा अमर
शरीर छोड़कर
घट अंदर
तड़पती रहती
ऊहा पोह मे
इच्छा शक्ति के तले
असीम आस
क्या करे क्या ना करे
नन्ही सी आत्मा
भटकाता रहता
मन बावला
प्रपंच फंसकर
जग ढूंढता
सुख चैन का निंद
जगजाहिर
मन आत्मा की बैर
घुन सा पीसे
पंच तत्व की काया
जग की यह माया

गांव के पुरवासी

बेटवा सुन
गांव देखा है कभी
दादी पूछते
नही दादी नही तो
किताब पढ़
जाना है मैं गांव को
भारत देश
किसानों का देश है
कृषि प्रधान
गांवो में बसते हैं
किसान लोग
मवेशियों के साथ
खेती करते
हां  बेटा हां
गांव किसानों का है
थोड़ा जुदा है
तेरे किताबों से रे
अपना गांव
गांव की शरारत
अल्हड़ प्यार
लोगों के नाते रिश्ते
खुली बयार
खुला खुला आसमा
खुली धरती
तलाब के किनारे
आम के छांव
लगे बच्चों का डेरा
खेल खेल में
खिलते बचपन
सखी सहेली
पक्षी बन चहके
गली आंगन
पुष्प बन महके
मुर्गे की बांग सुन
छोड़ बिछौना
जागे हैं नर नारी
नीम की डाल
दातून को चबाते
काली मिट्टी को
बदन में लगाते
खुले में नीर
मल मल नहाते
खेती का काम
लोग करे तमाम
माटी की सेवा
श्रद्धा के साथ करे
छेड़े हैं गीत
खेत खलिहानों में
अन्न की दाना
जगत को बांटते
प्रेम के साथ
स्नेह पुष्प खिलाते
एक दूजे के
सुख दुख के साथी
गांव के पुरवासी ।

करना है आराम (चोका)

ढलती शाम
दिन का अवसान
देती विराम
भागम भाग भरी
दिनचर्या को
आमंत्रण दे रही
चिरशांति को
निःशब्द अव्यक्त
बाहें फैलाय
आंचल में ढक्कने
निंद में लोग
होकर मदहोश
देखे सपने
दिन के घटनाएं
चलचित्र सा
पल पल बदले
रोते हॅसते
कुछ भले व बुरे
वांछित अवांछित
आधे अधूरे
नयनों के सपने
हुई सुबह
फिर भागम भाग
अंधड़ दौड़
जीवन का अस्तित्व
आखीर क्या है
मृत्यु के शैय्या पर
सोच रहा मानव
गुजर गया
जीवन एक दिन
आ गई शाम
करना है आराम
शरीर छोड़ कर ।

-रमेशकुमार सिंह चौहान

पहेली बूझ

पहेली बूझ !
जगपालक कौन ?
क्यो तू मौन ।
नही सुझता कुछ ?
भूखे हो तुम ??
नही भाई नही तो
बता क्या खाये ?
तुम कहां से पाये ??
लगा अंदाज
क्या बाजार से लाये ?
जरा विचार
कैसे चले व्यापार ?
बाजार पेड़??
कौन देता अनाज ?
लगा अंदाज
हां भाई पेड़ पौधे ।
क्या जवाब है !
खुद उगते पेड़ ?
वे अन्न देते ??
पेड़ उगे भी तो हैं ?
उगे भी पेड़ !
क्या पेट भरते हैं ?
पेट पालक ??
सीधे सीधे नही तो
फिर सोच तू
कैसे होते पोशण
कोई उगाता
पेड़ पौधे दे अन्न
कौन उगाता ?
किसका प्राण कर्म ?
समझा मर्म
वह जग का शान
वह तो है किसान ।

हम आजाद है रे (चोका)

कौन है सुखी ?
इस जगत बीच
कौन श्रेष्‍ठ है ?
करे विचार
किसे पल्वित करे
सापेक्षवाद
परिणाम साधक
वह सुखी हैं
संतोष के सापेक्ष
वह दुखी है
आकांक्षा के सापेक्ष
अभाव पर
उसका महत्व है
भूखा इंसान
भोजन ढूंढता है
पेट भरा है
वह स्वाद ढूंढता
कैद में पक्षी
मन से उड़ता है
कैसा आश्‍चर्य
ऐसे है मानव भी
स्वतंत्र तन
मन परतंत्र है
कहते सभी
बंधनों से स्वतंत्र
हम आजाद है रे ।

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