‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

एक प्रश्न (दोहे)

1.  
पावन पवित्र प्रेम को, करते क्यों बदनाम ।
स्वार्थ मोह में क्यों भला, देकर प्रेमी जान ।।

2.
एक प्रश्न मैं पूछती, देना मुझे जवाब ।
छोरा छोरी क्यो भला, करते प्रेम जनाब ।।

3.
तेरा सच्चा प्यार है, मेरा है बेकार ।
माॅ की ममता क्यों भला, होती है लाचार ।।

4.
सोलह हजार आठ में, मिले न राधा नाम ।
सारा जग फिर क्यो भला, जपते राधे श्याम ।।

5.
मातु पिता की बात पर, जिसने किया विवाह ।
होती उनमें भी प्रबल, इक दूजे पर चाह ।।

6.  
प्रेम एक तप होत है, काम नही आसान ।
नाम त्याग का प्रेम है, देना मत तुम जान ।।

मेरे मुन्ना राजकुवर (कुकुभ छंद)

नीले नभ से उदित हुये तुम, आभा सूरज सा छाये ।
ओठो पर मुस्कान समेटे, सुधा कलश तुम छलकाये ।।
निर्मल निश्चल निर्विकार तुम, परम शांति को बगराओ ।
बाहों में तुम खुशियां भरकर, मेरी बाहो में आओ।।

ओ मेरे मुन्ना राजकुवर, प्राणो सा तू प्यारा है ।
आजा बेटा राजा आजा, मैंने बांह पसारा है ।।
तुझे थामने तैयार खड़ा, मैं अपना नयन गड़ाये ।
नील गगन का सैर करायें, फिर फिर झूला झूलाये

चिंतन (दोहे)

मानव मानव एक हैं, कहे धर्म हरएक।
भिन्न-भिन्न पथ है सही, पर मंजिल है एक ।

कर्म कर्म सतकर्म कर, कर्म रचे व्यवहार ।
पैसों से व्यवहार तो, मिले नही संसार ।।

बढ़े चलो निज राह पर, हिम्मत भरकर बाॅंह ।
तेज धूप को देख कर, ढूंढ़ों मत जी छाॅह ।।

यहां वहां देखें जहां, इक जैसे है लोग ।
स्वार्थ लोभ अरू मोह का, लगा सभी को रोग ।

आप और मैं एक है, ना चाकर ना कंत ।
बहरा बनकर तू सुने, आॅंख मूंद मैं संत ।।


इंशा (तांका)

1.
तूझे भुला मैं
मुझको भी भुले तू
ना तेरा दोष
दोष मेरा भी नही
इंशा ही तो हैं ।

2.
अकेला आया
दुनिया में अकेला हॅू
जग तो राही
जाना मुझे अकेला
दुनिया छोड़

3.
भेड़ सा इंसा
एक राह चलते
स्वार्थ के पथ
सोच विचार तज
देखा देखी में

4.
शान दिखाना
मेरी फितरत है
इंसान हूॅं मैं
दुनिया से सीखा है
आंख दिखाना

करो प्रीत अपनो से बंदे

‘रमेश‘ दोनों हाथ जोड़ कर, श्री गणपति प्रथम मनावे ।
ज्ञानी जन को वंदन करके, रम्य छंद कुकुभ सुनावे ।।
सोलह चैदह पर यति जिसमें, छंद कुकुभ है कहलाते ।
विषम चरण बाध्य नही विशेष, पदांत गुरू-गुरू ही आते ।।

कुलशित संस्कृति हावी तुम पर, बांह पकड़ नाच नचाये ।
लोक-लाज शरम-हया तुमसे, बरबस ही नयन चुराये ।।
किये पराये अपनो को तुम, गैरों से हाथ मिलाये ।
भौतिकता के फेर फसे तुम, अपने घर आग लगाये ।।

मैकाले के जाल फसे हो, समझ नही तुझको आयेे ।
अपनी संस्कृति अपनी माटी, तुझे फुटी आंख न भाये ।।
दुग्ध पान को श्रेष्ठ जान कर, मदिरा को क्यो अपनाये ।
पियुष बूॅद गहे नही तुम तो, गरल पान को ललचाये ।।

पैर धरा पर धरे नही तुम, उड़े गगन पंख पसारे ।
कभी नही सींचे जड़ पर जल, नीर साख पर तुम डारे ।
नीड़ नोच कर तुम तो अपने, दूजे का सदन सवारे ।
करो प्रीत अपनो से बंदे, कह ज्ञानी पंडित हारे ।।

सुसुप्त वह स्वाभिमान (अतुकांत)

अतुकांत

हाथ में कटोरा हो ना हो,
भीख मांग रहे सभी,
कोई मंदिर मस्जिद द्वारे बैठ
कोई घर-घर दे दस्तक
कोई स्टेशन में हाथ फैलाय
कोई सरकार से छाती ठोक
मुफ्त बिजली पानी
मुफ्त राशन
मांगे खुद को गरीब कह कह
धनवान भी मांग रहे
छूट छूट
आयकर से छूट
इस कर से छूट, उस कर से छूट
मेहनती किसान भी
मांग रहे
सब्सीड़ी में खाद
सब्सीड़ी में कृषि औजार
गांव-गांव
गरीबी रेखा के नीचे
जीवन यापन करने वालो
 की भरमार ।
दानी है वर दानी है
केवल नेता
बांट रहे
वादे वादे वादे
मुफ्तखोर इंसान बनाने
रग-रग में मुफ्तखोरी जगाने
मुफ्त में दारू
मुफ्त में कपड़ा
मुफ्त में ........
मुफ्त में ........
मुफ्त में ........
कौन कहें
भीख नही अधिकार चाहिये
चाहिये हर हाथों में काम
कौन जगाये हमसब में
सुसुप्त वह स्वाभिमान ।।

-रमेश चौहान

बढ़े चलो (दोहे)

सम्हल कर चल तू जरा, अपनो से है बैर ।
द्वेष राग मन में भरा, कौन मनावें खैर ।।

तन्हा आया है जहां, साथी है संसार ।
अपनी यात्रा पूर्ण कर, जाना तन्हा यार ।

बढ़े चलो निज राह पर, हिम्मत भरकर बाॅंह ।
तेज धूप को देख कर, ढूंढ़ों मत जी छाॅह ।।

आप और मैं एक है, ना चाकर ना कंत ।
बहरा बनकर तू सुने, आॅंख मूंद मैं संत ।।

जन गण मन की गान से, गुंज रही आकाश ।
राष्ट्र ध्वज गणतंत्र पर, देते नव विश्वास ।।

राष्ट्र प्रेम उल्लास से, झूमे सारा देष ।
पावन इस गणतंत्र पर, भुल कर अपने क्लेष ।।



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