‘नवाकार’

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है,विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

Nawakar

Ramesh Kumar Chauhan

‘नवाकार’ हिन्दी कविताओं का संग्रह है

विशेषतः शिल्प प्रधन कविताओं का संग्रह है जिसमें काव्य की सभी विधाओं/शिल्पों पर कविता प्राप्त होगीं । विशषेकर छंद के विभिन्न शिल्प यथा दोहा, चौपाई कवित्त, गीतिका हरिगीतिका, सवैया आदि । जपानी विधि की कविता हाइकु, तोका, चोका । उर्दु साहित्य की विधा गजल, मुक्तक आदि की कवितायें इसमें आप पढ़ सकते हैं ।

नही है मुश्किल भारी

मुश्किल भारी है नही, देख तराजू तौल ।
आसमान की दूरियां, अब है नही अतौल ।।
अब है नही अतौल, नीर जितने सागर में ।
लिये हौसले हाथ, समेटे हैं गागर में ।।
कहे बात चौहान, हौसला है बनवारी ।
रखें आप विश्वास, नही है मुश्किल भारी ।।

माॅं को नमन

मेरा मन है पूछता, मुझसे एक सवाल ।
दिवस एक क्यों चाहिये, दिखने माॅं का लाल ।।
दिखने माॅं का लाल, खोजता क्यों है अवसर ।
रग पर माॅं का दूध, भूल जाता क्यों अक्सर ।।
सुनकर मन की बात, हटा जग से अंधेरा ।
करे सुबह अरू शाम, नमन माॅं को मन मेरा ।।

श्रमिक

श्रम को पूजा सब कहे, पूजा करे न कोय ।
श्रम की पूजा होय जो, श्रमिक काहे रोय ।।
श्रमिक काहे रोय, मेहनत दिन भर करके ।
भरे नहीं क्यों पेट, करे जब श्रम जीभर के ।
शोषण अत्याचार, कभी भी मिटे न यह क्रम ।
चिंता सारे छोड़, करे श्रमिक केवल श्रम ।।

जलूं क्यों आखिर घिर कर

घिर कर चारों ओर से, ढूंढ रहा हूॅ राह ।
शीश छुपाने की जगह, पाने की है चाह ।।
पाने की है चाह, कहीं पर एक ठिकाना ।
लगी आग चहुं ओर, मौत को है अब आना ।।
मनुज नही यह देह, कहे वह छाती चिर कर ।
मैं जंगल का पूत, जलूं क्यों आखिर घिर कर ।।

-रमेश चौहान

ममता

ममता ममता होत है, नर पशु खग में एक ।
खग के बच्चे कह रहे, मातु हमारी नेक ।
मातु हमारी नेक, रोज दाना है लाती ।
अपने पंख पसार, मधुर लोरी भी गाती ।
वह मुख से मुख जोड़, हमें सिखलाती समता ।
जीवन के हर राह, काम आती है ममता ।।

मांगे बिन भी दे रहे

मांगे बिन भी दे रहे, माता पिता दहेज ।
स्टेटस मोनो मान कर, करे कहां परहेज ।।
करे कहां परहेज, दिये भौतिक संसाधन ।
सिखलाये अधिकार, आत्म रक्षा के साधन ।
अनुशासन कर्तव्य, रखे अपने घर टांगे ।
दिये नही संस्कार, बेटियों को बिन मांगे ।।

रखें संतुलित सृष्टि

सूर्य ताप से ये धरा, झुलस रही है तप्त ।
गर्म तवे पर तल रहे, जीव जीव अभिसप्त ।।
जीव जीव अभिसप्त, कर्म गति भोगे अपना ।
सृष्टि चक्र को छेड़, देख मनमानी सपना ।
हाथ जोड़ चौहान, निवेदन करे आप से ।
रखें संतुलित सृष्टि, बचे इस सूर्य ताप से ।।
- रमेश चौहान

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